हम सब कहते हैं बचपन के दिन भी क्या दिन थे.... है न ?
सब कुछ कितना सरल था, जो माँ कहती वही पापा कहते, वही काका बताते जो नाना ने सुनाया था, रिक्शा वाले भईया भी वही दुहराते जो क्लास में टीचरजी समझातीं. विचारों में कहीं कोई विरोधभास नहीं. एक समरसता में जीवन बीता था.
और अब?
बचपन को अपनी अपनी विचारधारा से प्रभावित करने की जैसे होड़ लगी है. सब अपनी सोच को जीना चाहते हैं और अगर किसी कारण नहीं जी पा रहे तो, अपने वर्चस्व की लड़ाई में, प्यार और सूझ भूझ के नाम पर, बच्चों का बेहिचक इस्तेमाल हो रहा है.
माँ कहती है " मैं जो कह रही वही सही है - पापा? उनकी तो बात ही मत करो वो बिलकुल व्यवहारिक नहीं, तुम मेरी सुनो और आराम से जियो. मैंने उनकी सुनने की जो गलती करी उसके लिए आज तक पछता रही हूँ. और हाँ, अगर उन्होंने कुछ कहा तो तुम चिंता मत करना मैं उनको देख लूंगी".
पापा समझाते हैं - "बेटा, मैंने माँ से ज्यादा दुनिया देखी है. अपने जीवन को सवारों, मेरी कही करते जाओ और फिर देखो!!"
रिक्शा वाले भईया तो कोई रहे ही नहीं - रिक्शा वाला हो गया! फिर बड़े काका, बुआ मौसी नाना नानी दादाजी दादी पड़ोस के चाचा की क्या बिसात. वैसे कुछ होशियार अगर बोल कर विचार व्यक्त नहीं करते या कर पाते तो अपने आपको ऐण प्रकरेण समझा के ही दम लेते हैं, ब्लॉग है न? Face book है न? हार गए तो स्वनिर्मित स्वकेंद्रित अहंकार का क्या होगा!!
बच्चों के सामने ही सारे समय - परिवार के ही एक दूसरे की, अड़ोसी पड़ोसी की, समाज की, कभी सरकार की शिकायत चलती रहती है, और फिर उनसे कहा जाता है - मन लगा कर पढ़ो, हर काम को अच्छे से करो. इन मासूमो के अन्दर क्या चल रहा, इसकी जरा भी भनक ज्यादातर लोगों को आज है क्या? एक असुरक्षा की मनः स्थिति में इनका बचपन गुजर रहा है.
जिसके कारण ये बिचारे जितना हो सके घर से दूर रहने लगे हैं. दूर रहना इनकी लाचारी होती जा रही है, दोस्तों के साथ कोई शिकायत तो नहीं होती न, ऐसा करो वैसा मत करो का भाषण तो नहीं होता न.
और 'यह मेरी ज़िन्दगी है ....' - ' मैं आज में जी लूँ....' सूक्ष्म रूप से उनके भीतर भविष्य के प्रति अनिश्तिता से उत्पन हो रही है. बड़े बुजुर्गों को बच्चों के सामने एक पक्षिये विचार रखने से परहेज करना ही होगा!!!!
बच्चों को शतरंज की मोहरे बनाकर सब अपनी गोटी लाल करने में लगे हैं.
हंसी इस बात पे और भी आती है कि जो अपनी ज़िन्दगी में शायद ही कुछ 'सकारात्मक' हासिल कर रहे हों, या कर पाए हों, वो भी अपनी उम्र और रिश्तों की दुहाई देकर, इन मासूमों के कंधे से बन्दूक चला रहे हैं.
बच्चे भी कम नहीं हैं, वे भी असाधारण गुणों से लैस हैं, आखिर 21वी सदी के जो हैं. It's My Life इनका मूल मंत्र है, जबरदस्त सामयिक ज्ञान है और अपने फायदे नुकसान को बखूबी समझते हैं. मौके का इस्तेमाल - तो जैसे ईश्वर ने घुट्टी में पिलाकर भेजा है.
नतीजा - सारी परिभाषाएं ही गडमड होती जा रही है (हो चुकी हैं का इस्तेमाल मैं जान भूझ के नहीं कर रहा क्यूंकि अब भी बहुत कुछ बचा हुआ है और बचाया जा सकता है) बस हमे थोड़ा आत्म निरिक्षण करने की जरुरत है. थोड़ा खुद को सर्व ज्ञानी समझने से परहेज करने की जरुरत है.
क्या हम अपने मासूमो के लिए इतना त्याग कर सकते हैं????????????
त्याग तो सारा जीवन है . कुछ ऊपर कुछ नीचे सामान्यतः सबकी ज़िन्दगी है . यूँ मेरी दृष्टि में ( दृष्टिकोण अपना ही होता है , सीमित हो या असीमित ) त्याग एक समर्पण है और हर समर्पण से एक व्यक्तित्व की छवि निकलती है ... जिसने उस छवि को हटा दिया , वहाँ सबकुछ बेमानी होते हैं - भले ही मोहवश हम उलटफेर करते रहें . मन से समर्पण , त्याग का अपना महत्व है , मन से परे अस्तित्वहीन .
ReplyDeleteजो हूँ मैं हूँ ' के परिप्रेक्ष्य में चिंतन की अपनी सीमा है -
आपने सही कहा है , सभी त्रस्त भी हैं , पर सबकी अपनी अपनी दीवारें हैं - उन दीवारों को गिराना फिलहाल असंभव है , पर ऐसे स्पष्ट आलेख एक सोच देंगे और कई शहीदों के बाद संस्कारों की धरती नवनिर्मित होगी
बचपन न जाने कहाँ भागा जा रहा है।
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक बात कही है आपने ..विचारणीय प्रस्तुति ..आभार
ReplyDeleteयह तो बहुत ही गहन-चिंतनशील लेख है कि माँ-बाप/रिश्तेदार जाने-अनजाने बच्चों पर जो दबाव बना रहे हैं उसे कैसे रोका जाए..
ReplyDeleteबहुत ज्यादा बदलाव की आवश्यकता होगी जो की आसान न होगा.. पर इतना गहन सोचने वाले लोगों की तादाद भी कम होती जा रही है, यह भी एक समस्या है..
दरअसल बहुत साड़ी बातें एक दूसरे में उलझी हुई हैं और इसे सुलझाना मेरे ख्याल से बहुत ज्यादा मुश्किल है..
vah, shandar aalekha hae.
ReplyDeleteविचारणीय बात . न जाने क्यों शुरू से ही लगता है बच्चों का बड़ा हो जाना और उन्हें पाला जाना दोनों अलग अलग हैं.....
ReplyDeleteaap ki post ne kafi kuch sochne par mazbur kiya
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