Monday, October 17, 2011

चरित्रहीनता क्या है ?

चरित्रहीनता क्या है ?

कृष्ण से अपनी चर्चा शुरू करना चाहूँगा?
आम परिभाषा से तो कृष्ण से ज्यादा चरित्रहीन कोई होना ही नहीं चाहिए था! पर उन्हें तो सम्पूर्ण पुरुष, जगत गुरु कहा गया. शादी शुदा राधा से उनका प्यार? हजारों गोपियों के संग उनका रास? अर्जुन को नरसंहार लिए तैयार करना? भीष्म कर्ण दुर्योधन जरासंध को छल से मरवाना? अगर यह सब उनके लिए वैध थे तो दूसरों के लिए क्यूँ नहीं? क्यूँकी हम जानते हैं की कृष्ण ने और केवल उन्होंने खोखले ज्ञान को कभी प्रोत्साहित नहीं किया. बाकी सब ने दोहरी नीति अपनाई, (आज भी हमारे समाज के निर्णय व्यक्ति की पोजीशन और पावर से किये जाते हैं. यहाँ तक की चरित्र जैसे महत्वपूर्ण निर्णय भी!) कृष्ण का कृत्य साक्षी भाव से किया गया था... केवल उन्हीं के पास सारे सोलह गुण थे, राम के पास केवल १२ कहे जाते हैं.
अब एक छोटी सी कहानी (ऐसी कई कहानियां आप सब भी जानते ही होंगे) -
कहते हैं ईशा एक बार पेड़ की छाँव में बैठे थे, तभी एक बदहाल बदहवास स्त्री दौड़ी दौड़ी आई और उनके पैरों में गिर के उसे बचाने की विनती करने लगी. ईशा ने स्वभावनुसार प्यार से पूछा - किस से और क्यूँ ? उस स्त्री ने रोते हुए बताया कि वह गरीब है और अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के वास्ते जो करती है उसे सब अनैतिक और पाप कहते हैं और उसे चरित्रहीन मानते हैं और आज इसी कारण सब उसे मार देना चाहते हैं. ईशा ने उसे प्यार से अपने पास बिठा लिया और शांत रहने को कहा. उत्साहित भीड़ ने वहां पहुच कर ईशा से उस स्त्री का पक्ष न लेने की मांग की. ईशा ने उन्हें समझाया कि उन्हें उनकी किसी बात से कोई आपत्ति नहीं है, बस वो इतना चाहते हैं की पहला पत्थर वो चलाये, जिसने आज तक कोई पाप न किया हो और न ही करने का विचार उसके मन में आया हो. कहते हैं सारे लोगों के हाथ के पत्थर गिर गए.

निष्कर्ष : बिना 'पूर्ण - सच' जाने चरित्र सम्बन्धी निर्णय सरल परिभाषाओं से नहीं किये जा सकते, कृत्य के उद्देश्य और भाव ही तय करते हैं 'चरित्र' की परिभाषा.
किसी के भी सच को जानना हमेशा मुश्किल रहा है, अब तो बिलकुल असंभव है. आज वर्षों की परिभाषाएं ध्वस्त हो रही है, नयी नयी जरूरतें सामने आ रही हैं, ऐसे डर, एक से एक अबूझ व्याख्याएं हो रही हैं, उम्र और वर्ग का इतना अंतर कभी देखा ही नहीं गया था, अपनी पहचान के लिए इतना उतावलापन और मकसद के लिए कुछ भी कर गुजरने की जल्दबाजी? अब हमे बहुत ही शांत मन से सब सुनना होगा, खुद को उस परिस्थिति में रख के सोचना होगा, अपने विचारों को बहुत संयम से व्यक्त करने की जरुरत पड़ेगी, सुझाव देने या सजा सुनाने से पहले पूरे परिप्रेक्ष्य में घटनाओं को देखना होगा और तब भी भूल कि सम्भावना से नकारा नहीं जा सकता.
पर आज हमारे कई निर्णय संवेदना विहीन हो रहे हैं ? ठीक है, उम्र के साथ हमने अपने जीवन के कई कड़वे सच अन्दर ही जब्त कर लिए हैं, इतने अन्दर कि अब उनकी आवाज भी हम तक नहीं पहुचती. क्यूंकि अगर सुन पाते तो उनसे मिलती जुलती घटनाओं में सहानुभूतिपूर्ण निर्णय करने की बजाये इतनी निष्ठुरता से पेश नहीं आते. सच हमेशा गरीब होता है, अपने स्वाभिमान संग कई परतों में छिपा रहता है. इसके विपरीत झूट दबंग होता है और इतना सरल दिखता है कि कई बार हम उसी को सच समझने की भूल करते हैं. आज भी खुदगर्ज़ ही सबसे अधिक उदारता की बात करता है, चोर ही सजा दिलवाएगा, झूठा सच का ढोल और बेईमान ईमानदारी की चर्चा करते नहीं थकेगा, जितना बड़ा व्यभिचारी होगा , उतना ही चीख चीख के नैतिकता का झंडा उठाएगा !.
हाँ 'चरित्र' सम्बन्धी मापदंड स्त्री और पुरुष के लिए भी अलग भी नहीं हो सकते!!! अगर पुरुष में भेड़िये होते हैं, तो क्या आज स्त्रियों में शूर्पनखाएँ नहीं छुपी हैं? क्या पुरुष और क्या महिला ? कल तक पुरुष अपने अपने पूर्वाग्रह और घृणा को 'चरित्रहीन' जैसे शब्द से व्यक्त करते थे, ठीक उसी तरह आज कई महिलाओं ने जिन्होंने नारी मुक्ति आन्दोलन के झंडे के तले अपनी हिंसा को छुपा रखा है, अब 'चरित्रहीन' शब्द का इस्तेमाल अपने पूर्वाग्रह और घृणा से कर रही हैं। दोहरे संस्कार वालों से हमे सावधान रहना होगा, ये बड़े सफाई से भीतर छुपी हिंसा को न्याय का नाम दे रहे है. उनके प्रभाव में तिल का ताड़ हुआ जा रहा और अनजाने ही सबकुछ बहुत तेजी से ध्वस्त हुआ जा रहा हैं.