Wednesday, September 21, 2011

न देवता असुर न असुर देवता



तेज आँधी में
खड़खड़ाते पत्ते
धूल का उठता बवंडर
आपे से बाहर होते
खिड़की दरवाज़े के पल्ले !
बन्द करता जाता हूँ दरवाज़े खिड़कियों को
ध्यान में डुबो देता हूँ खुद को ....
ध्यान से उठते पाता हूँ
आँधी बन्द दरवाज़े को पीट रही है
खड़खड़ाते पत्ते चौखट पर जमा हो रहे हैं
हल्की सुराखों से धूल कण कोने में पसर रहे हैं ...
एकबारगी एक हल्की स्मित चेहरे पर
शांत स्थिर फैल जाती है
सोचता हूँ ,
प्रकृति किस तरह प्रतीक बनती है
बिना कोई शब्द उचरे
कितना कुछ कह जाती है ...
मनुष्य हो या प्रकृति
जिसका जो स्वभाव है - वह बना रहता है
कुरेदने से न देवता असुर होते हैं
क्षमा कर देने से न असुर देवता