Friday, October 29, 2010

कौन सा सच


कहते हो सच जानना है

कौन सा सच?

जिसे मैं दुनिया को पेश करता हूँ

या वो

जिसे मैं जीता हूँ....


व्यर्थ है

मत जानो किसी का सच

क्यूंकि सच क्रूर होता है

सच ही तो जानने चला था एथेंस का सत्यार्थी

और ऑंखें खो कर कीमत चुकाई थी .....


फिर मेरा सच

सिर्फ मेरा ही हो सकता है

मेरे सच को तुम

सच मान भी कैसे सकते हो

क्या निकल पाओगे अपनी मान्यताओं से

जिनसे तुमने अपनी पहचान बना ली है....


सच तो तुम्हारे चारोँ ओर

हर समय फैला है

तुमने ही आँखें मूँद रखी हैं

क्यूँकी अब सच कि नहीं

झूट की आदत हो गयी है....


कहो तो तुम्हारे झूट को ही

अपना सच बता दूँ

अपना झूठ मुझसे सुन कर

तुम्हारा सच जानने का भ्रम भी बना रह जायेगा ....


मत जानो किसी का सच

क्यूँकी फिर

हममे से एक ही रह जायेगा

तुम्हारे सच को अपना कह

मैं मिट जाऊं

या मेरा सच जान

तुम्हारा वजूद मिट जाये

बात तो एक ही है न ....


अपने सच के साथ ख़ुशी से जियो

जैसे सब जीते हैं

क्यूँ मिटाना अपने ही हाथों अपनी हस्ती को

संसार यूँही चलता आया है

चलता रहेगा

कौन किसी को कभी अपना सच दिखा पाया है

कौन कभी किसी का सच जान पाया है

Friday, October 22, 2010

क्यूँ?


उदार !
उदार बनू ?
क्यूँ ?
किस्से ?
किस लिए ?
कब तक ?
कहाँ तक?

बनू ?
मतलब ?
हूँ नहीं क्या ?

समझ कर वो समझदार बने
हम समझ कर नासमझ बनते
उदारता हमारा स्वभाव था
और उनका पेशा ....
कहोगे आज वो कहाँ
और हम कहाँ,
वो लेकर भी खाली
और हम....

ठीक है
पर कीमत,
कीमत किसने चुकाई ?
हमने,
उम्र से....

पाठ तो पढ़ा,
पर सीखा नहीं कृष्ण से -
व्यक्ति, काल, परिस्थिति
समझ - देख कर ही,
निश्चय सही होता है....
कोरी परिभाषाओं से
इंसान ही भ्रमित होता जाता है....


लेना गर ठीक नहीं
तो लुटाना कैसे हो सकता है ?
उदारता अभिशाप न बन जाये
समय रहते,
सम्हल जाना ही ठीक होता है....

Saturday, October 16, 2010

संबंधों से परे

खुद को झुठलाकर हमने

लोगों की सुनी,

पर लोग

फिर भी

कहते रहे,

कहते ही रहे ...

आखिर कब तक...

चलो अब तो हम

संबंधों से परे

अपने सम्बन्ध बना लें...

Tuesday, October 12, 2010

शिव और शक्ति

शिव और शक्ति

भोले शिव - 
और संहार करता ?


शिव के संहार में सृजन के बीज हैं,
पक्षपात विहीन कृत्य....
क्यूंकि
कई बार कोई विकल्प ही नहीं होता,
क्यूंकि विकृति हद से गुजर के संस्कार बन जाती है....

कहते हैं जब शिव विष का पान कर रहे थे
तो शक्ति ने उसे गले में ही रोक दिया था,
हृदय में उतरने नहीं दिया,
शिव का कंठ जरुर नीला हो गया
पर संसार का भोलापन बच गया....


शिव और शक्ति  -
भोलापन और प्रेम -



सृष्टि के मूल हैं....

इस महाशिवरात्रि के पर्व में
आइये
हम भी अआतं अवलोकन करें, 
शिव और शक्ति को जगाएं,
क्यूंकि उनके बिना
जीवन में उत्सव कहाँ ? 

Saturday, October 9, 2010

कहाँ हूँ मैं !

कहाँ हूँ मैं !

सब कहते हैं
आप बहुत अच्छे है
मैंने पूछा - क्यूँ -
क्योंकि आप हमेशा हमारे लिए सोचते हैं

किसी ने कहा
आप कितने प्यारे हैं --
कैसे भला

आप हमे इतना प्यार जो करते हैं
.................
और मैं टुकड़े टुकड़े होता गया !

फिर वह मिला
उसने कहा
तुमने खुद को कभी जाना है ?

उम्र बीतती गयी
आकलनों को बटोरते
कभी खुश हुआ
ख़याली पुलाव बनाते
कभी हतप्रभ हुआ
खुद को अजनबी सा देखते
अंतर्द्वंद में
सबकुछ गडमड होता गया

खुद को कोसा
'क्या क्या सोच जाते हो तुम !'
और सबको आवाज़ दी
कहीं दरवाजा बंद मिला
कहीं छोटा सा फ़ोन भी बंद मिला
पाया ----
सब व्यस्त हैं
मेरे लिए तो किसी के पास वक़्त नहीं था
....
कैसे रोता
मन की धारणा को कैसे झुठलाता
'पुरुष आधार है
शक्ति है
आंसू कमजोरी है ....'

पर सुबह देखा
मेरा तकिया गिला था
किसी का हाथ मेरे सर पे था
देखा -
मेरा मैं मेरे पास है
उसीने मुझे दुलारा
और कहा -

'थकना तो था ही
तुमने खुद को
महज एक ज़रूरत बना दिया था
तुम ज़िंदा हो
यही क्या कम है !
परिचितों की भीड़ में
तुम अपरिचित हो
क्योंकि तुमने अपना परिचय कभी दिया ही नहीं...
अब तो मेला उठने का समय है
यूँ भी
आज की चकाचौंध में मेला कौन जाता है !
जमाना बदल गया
और
परिचितों की इस रंगीन भीड़ में तुम -
आज भी किसी अपने को ढूंढ रहे हो !!!'