कहाँ हूँ मैं !
सब कहते हैं
आप बहुत अच्छे है
मैंने पूछा - क्यूँ -
क्योंकि आप हमेशा हमारे लिए सोचते हैं
किसी ने कहा
आप कितने प्यारे हैं --
कैसे भला
आप हमे इतना प्यार जो करते हैं
.................
और मैं टुकड़े टुकड़े होता गया !
फिर वह मिला
उसने कहा
तुमने खुद को कभी जाना है ?
उम्र बीतती गयी
आकलनों को बटोरते
कभी खुश हुआ
ख़याली पुलाव बनाते
कभी हतप्रभ हुआ
खुद को अजनबी सा देखते
अंतर्द्वंद में
सबकुछ गडमड होता गया
खुद को कोसा
'क्या क्या सोच जाते हो तुम !'
और सबको आवाज़ दी
कहीं दरवाजा बंद मिला
कहीं छोटा सा फ़ोन भी बंद मिला
पाया ----
सब व्यस्त हैं
मेरे लिए तो किसी के पास वक़्त नहीं था
....
कैसे रोता
मन की धारणा को कैसे झुठलाता
'पुरुष आधार है
शक्ति है
आंसू कमजोरी है ....'
पर सुबह देखा
मेरा तकिया गिला था
किसी का हाथ मेरे सर पे था
देखा -
मेरा मैं मेरे पास है
उसीने मुझे दुलारा
और कहा -
'थकना तो था ही
तुमने खुद को
महज एक ज़रूरत बना दिया था
तुम ज़िंदा हो
यही क्या कम है !
परिचितों की भीड़ में
तुम अपरिचित हो
क्योंकि तुमने अपना परिचय कभी दिया ही नहीं...
अब तो मेला उठने का समय है
यूँ भी
आज की चकाचौंध में मेला कौन जाता है !
जमाना बदल गया
और
परिचितों की इस रंगीन भीड़ में तुम -
आज भी किसी अपने को ढूंढ रहे हो !!!'
Saturday, October 9, 2010
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वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति....
ReplyDeleteनवरात्रि की आप को बहुत बहुत शुभकामनाएँ ।जय माता दी ।
ओह ...सच भीड़ में गुमे हुए अपनी ही पहचान भूल जाते हैं ...सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeletesunder kavita ! aaj ke paridrishya ko achha ukera hai
ReplyDeleteअपने को तलाशते तलाशते
ReplyDeleteअपना आप भी अजनबी हो जाता है
और भूल जाता है वो सर पे हाथ रखना
वह दिन आए
उससे पहले रुको
गंगा यमुना के मध्य बहती सरस्वती की तरह
खुद को जानो
अगर वह ना हो तो त्रिवेणी की पहचान गुम हो जाये
बहुत खूब ... लाजवाब लिखा है ..
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 12 -10 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
बस वो अपना ही ता-उम्र नही मिलता और जो अपना है उसे खोजने की जहमत हम उठाना नही चाहते और भटकते फ़िरते एक अन्जानी तलाश मे जो कभी पूरी नही होती जब तक खुद को नही जाना होता।
ReplyDeleteबहुत सुंदरता से मानव मन के अकेले पण की व्यंजना की है इस दुनियां के मेले में.
ReplyDeleteसुंदर चित्रण.
बहुत उम्दा रचना...
ReplyDeleteसुंदर और सटीक अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर
डोरोथी.
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