Friday, October 22, 2010

क्यूँ?


उदार !
उदार बनू ?
क्यूँ ?
किस्से ?
किस लिए ?
कब तक ?
कहाँ तक?

बनू ?
मतलब ?
हूँ नहीं क्या ?

समझ कर वो समझदार बने
हम समझ कर नासमझ बनते
उदारता हमारा स्वभाव था
और उनका पेशा ....
कहोगे आज वो कहाँ
और हम कहाँ,
वो लेकर भी खाली
और हम....

ठीक है
पर कीमत,
कीमत किसने चुकाई ?
हमने,
उम्र से....

पाठ तो पढ़ा,
पर सीखा नहीं कृष्ण से -
व्यक्ति, काल, परिस्थिति
समझ - देख कर ही,
निश्चय सही होता है....
कोरी परिभाषाओं से
इंसान ही भ्रमित होता जाता है....


लेना गर ठीक नहीं
तो लुटाना कैसे हो सकता है ?
उदारता अभिशाप न बन जाये
समय रहते,
सम्हल जाना ही ठीक होता है....

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविता... सचमुच कृष्ण से सीखना चाहिए .. लेकिन कहाँ सीख पायें हैं हम.. यदि सीख जाते तो कृष्ण की जरुरत ही नहीं होती..

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  2. कीमत चुकाने का सामर्थ्य भी हम ही रखते हैं ...
    दानवीरता भी हमारी
    सहनशीलता भी हमारी
    आंसू भी हमारे
    सुकून भी हमारे
    गीता के सार के संग कृष्ण भी हमारे

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  3. "vo samajh ker samjhdaar bane aur hum samajh ker nasamjh"--to jyada samjhdaar kaun hua??? "udarta abhishaap na ban jaye"--ye bhi hum khud hi samajh rahe hai...ye humari samajhdari hui..fir jada samajhdaar kaun??? vaise bhi samay ke saath sab samjh jate hain....aur fir is duniya main keemat bhi sabhi chukate hain...tareeke alag alag ho sakte hain...samay se pahle sambhal jane main hi bhalai hai...bhai,apni samajhdari se kaam lo...badhai ho !!

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  4. बहुत बढ़िया........

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