Tuesday, December 21, 2010

आत्मा - परमात्मा वार्तालाप




आत्मा)
अगर ये सच है
कि मैं तुम्हारा प्रतिरूप हूँ
तो फिर ये उद्विग्नता क्यूँ?
तुम आधार देकर
क्यूँ निराधार चिंतन देते हो
न्याय की दिशा निर्धारित तो तुम ही करते हो
फिर अन्याय के आरोप के दलदल में
मुझे क्यूँ डालते हो ?

....परमात्मा )
इतनी आसानी से तुम ज़िन्दगी को कैसे झेल सकते हो?
विरोध के स्वर के मध्य ही तो तठस्थता देखी जाती है
कबड्डी के खेल में जो कोमल पकड़ रखते हैं
वे हार जाते हैं
जीतने के लिए मन की ताकत
शरीर का प्रयोजन बनती है
अन्याय के दलदल में मैं नहीं पहुँचाता तुम्हें
तुम्हारा विरोधी द्वन्द तुम्हारे आगे प्रश्न खड़े करता है ...

आत्मा)
द्वन्द क्यूँ ना हो प्रभु ...
सब कहते हैं सब निर्धारित है
तो सही गलत तो तय है
कर्ता तुम
तो मैं कैसे उत्तरदायी ?

परमात्मा)
जब जब मंथन होता है
तुम असाधारण से साधारण हो जाते हो !
क्या तुम इस बात से अनभिज्ञ हो
कि समुद्र मंथन में एक तरफ मैं था
तो एक तरफ असुर ?
मेरी लीला तो बस इतनी थी
कि सर्प का मुख असुरों की तरफ था !
मेरा उद्देश्य अमृत था
यानि न्याय
....
ज्ञान के इस छोर तक तुम हो
फिर प्रश्न क्या ?
जब जब धर्म का नाश होता है
मैं अवतार लेता हूँ
....फिर द्वन्द क्या ?
दलदल प्रश्नों का कहीं नहीं
अपने अन्दर का भय है
और इससे उबरने का दायित्व अपना होता है
निर्वाण का मार्ग अपना होता है ....
....
कोई और प्रश्न ?
..............
आत्मा ने दृष्टि झुका ली !

10 comments:

  1. अतम मंथन ,चिन्तन की राह दिखाती रचना के लिये बधाई।

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  2. जिंदगी के द्वन्द को आसान करती अध्यात्मिक पटल पर सुन्दर कविता..

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  3. बहुत समय बाद एक मन को छूने वाली अध्यात्मिक रचना से दो-चार होने का अवसर मिला.मन का द्वंद्व ही शायद ईश्वरीय सत्ता और मानव अस्तित्व का निर्धारक है.जो भी हो ज्ञानवर्द्धक रचना के लिए बधाई.

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  4. आत्मा परमात्मा की बातें ज़िन्दगी के उस द्वार को खोलती है , जिसे हम बार बार बन्द कर देना चाहते हैं ... प्रभु की इच्छा ' कहकर उत्तरदायित्व से परे होना चाहते हैं , प्रभु की इच्छा यहाँ आत्मा की शुद्धि है , आत्मा की अटलता है ....

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  5. अंतर्मंथन और गूढ़ चिंतन को वाध्य करती रचना

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  6. hats off.. :)
    Aapke blog pr aakar bahut accha laga.. pehli rachna ne kehne pr majboor kr diya.. Hats off

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  7. .फिर द्वन्द क्या ?
    दलदल प्रश्नों का कहीं नहीं
    अपने अन्दर का भय है
    और इससे उबरने का दायित्व अपना होता है
    निर्वाण का मार्ग अपना होता है ...बहुत ही सुन्‍दरता से
    व्‍यक्‍त किया है आपने इस द्वन्द को ...।

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  8. bahut hi gahri soch ke saath ek alag si rachna padhne ko mili.
    aatma -parmatama ke baare me itni achhi vartalaap ke jariye adbhut vishleshan--
    bahut bahut badhai ho suman ji
    poonam

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  9. sara saar sama gaya hai is chintan aur manan me.............behatariin prastuti.

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  10. aatm-manthan aur aatm-lokan ke dwara ek uttam soch ko darshaati rachna, saadhuwaad!

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