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आत्मा)
अगर ये सच है
कि मैं तुम्हारा प्रतिरूप हूँ
तो फिर ये उद्विग्नता क्यूँ?
तुम आधार देकर
क्यूँ निराधार चिंतन देते हो
न्याय की दिशा निर्धारित तो तुम ही करते हो
फिर अन्याय के आरोप के दलदल में
मुझे क्यूँ डालते हो ?
....परमात्मा )
इतनी आसानी से तुम ज़िन्दगी को कैसे झेल सकते हो?
विरोध के स्वर के मध्य ही तो तठस्थता देखी जाती है
कबड्डी के खेल में जो कोमल पकड़ रखते हैं
वे हार जाते हैं
जीतने के लिए मन की ताकत
शरीर का प्रयोजन बनती है
अन्याय के दलदल में मैं नहीं पहुँचाता तुम्हें
तुम्हारा विरोधी द्वन्द तुम्हारे आगे प्रश्न खड़े करता है ...
आत्मा)
द्वन्द क्यूँ ना हो प्रभु ...
सब कहते हैं सब निर्धारित है
तो सही गलत तो तय है
कर्ता तुम
तो मैं कैसे उत्तरदायी ?
परमात्मा)
जब जब मंथन होता है
तुम असाधारण से साधारण हो जाते हो !
क्या तुम इस बात से अनभिज्ञ हो
कि समुद्र मंथन में एक तरफ मैं था
तो एक तरफ असुर ?
मेरी लीला तो बस इतनी थी
कि सर्प का मुख असुरों की तरफ था !
मेरा उद्देश्य अमृत था
यानि न्याय
....
ज्ञान के इस छोर तक तुम हो
फिर प्रश्न क्या ?
जब जब धर्म का नाश होता है
मैं अवतार लेता हूँ
....फिर द्वन्द क्या ?
दलदल प्रश्नों का कहीं नहीं
अपने अन्दर का भय है
और इससे उबरने का दायित्व अपना होता है
निर्वाण का मार्ग अपना होता है ....
....
कोई और प्रश्न ?
..............
आत्मा ने दृष्टि झुका ली !