चरित्रहीनता क्या है ?
कृष्ण से अपनी चर्चा शुरू करना चाहूँगा?
आम परिभाषा से तो कृष्ण से ज्यादा चरित्रहीन कोई होना ही नहीं चाहिए था! पर उन्हें तो सम्पूर्ण पुरुष, जगत गुरु कहा गया. शादी शुदा राधा से उनका प्यार? हजारों गोपियों के संग उनका रास? अर्जुन को नरसंहार लिए तैयार करना? भीष्म कर्ण दुर्योधन जरासंध को छल से मरवाना? अगर यह सब उनके लिए वैध थे तो दूसरों के लिए क्यूँ नहीं? क्यूँकी हम जानते हैं की कृष्ण ने और केवल उन्होंने खोखले ज्ञान को कभी प्रोत्साहित नहीं किया. बाकी सब ने दोहरी नीति अपनाई, (आज भी हमारे समाज के निर्णय व्यक्ति की पोजीशन और पावर से किये जाते हैं. यहाँ तक की चरित्र जैसे महत्वपूर्ण निर्णय भी!) कृष्ण का कृत्य साक्षी भाव से किया गया था... केवल उन्हीं के पास सारे सोलह गुण थे, राम के पास केवल १२ कहे जाते हैं.
अब एक छोटी सी कहानी (ऐसी कई कहानियां आप सब भी जानते ही होंगे) -
कहते हैं ईशा एक बार पेड़ की छाँव में बैठे थे, तभी एक बदहाल बदहवास स्त्री दौड़ी दौड़ी आई और उनके पैरों में गिर के उसे बचाने की विनती करने लगी. ईशा ने स्वभावनुसार प्यार से पूछा - किस से और क्यूँ ? उस स्त्री ने रोते हुए बताया कि वह गरीब है और अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के वास्ते जो करती है उसे सब अनैतिक और पाप कहते हैं और उसे चरित्रहीन मानते हैं और आज इसी कारण सब उसे मार देना चाहते हैं. ईशा ने उसे प्यार से अपने पास बिठा लिया और शांत रहने को कहा. उत्साहित भीड़ ने वहां पहुच कर ईशा से उस स्त्री का पक्ष न लेने की मांग की. ईशा ने उन्हें समझाया कि उन्हें उनकी किसी बात से कोई आपत्ति नहीं है, बस वो इतना चाहते हैं की पहला पत्थर वो चलाये, जिसने आज तक कोई पाप न किया हो और न ही करने का विचार उसके मन में आया हो. कहते हैं सारे लोगों के हाथ के पत्थर गिर गए.
निष्कर्ष : बिना 'पूर्ण - सच' जाने चरित्र सम्बन्धी निर्णय सरल परिभाषाओं से नहीं किये जा सकते, कृत्य के उद्देश्य और भाव ही तय करते हैं 'चरित्र' की परिभाषा.
किसी के भी सच को जानना हमेशा मुश्किल रहा है, अब तो बिलकुल असंभव है. आज वर्षों की परिभाषाएं ध्वस्त हो रही है, नयी नयी जरूरतें सामने आ रही हैं, ऐसे डर, एक से एक अबूझ व्याख्याएं हो रही हैं, उम्र और वर्ग का इतना अंतर कभी देखा ही नहीं गया था, अपनी पहचान के लिए इतना उतावलापन और मकसद के लिए कुछ भी कर गुजरने की जल्दबाजी? अब हमे बहुत ही शांत मन से सब सुनना होगा, खुद को उस परिस्थिति में रख के सोचना होगा, अपने विचारों को बहुत संयम से व्यक्त करने की जरुरत पड़ेगी, सुझाव देने या सजा सुनाने से पहले पूरे परिप्रेक्ष्य में घटनाओं को देखना होगा और तब भी भूल कि सम्भावना से नकारा नहीं जा सकता.
पर आज हमारे कई निर्णय संवेदना विहीन हो रहे हैं ? ठीक है, उम्र के साथ हमने अपने जीवन के कई कड़वे सच अन्दर ही जब्त कर लिए हैं, इतने अन्दर कि अब उनकी आवाज भी हम तक नहीं पहुचती. क्यूंकि अगर सुन पाते तो उनसे मिलती जुलती घटनाओं में सहानुभूतिपूर्ण निर्णय करने की बजाये इतनी निष्ठुरता से पेश नहीं आते. सच हमेशा गरीब होता है, अपने स्वाभिमान संग कई परतों में छिपा रहता है. इसके विपरीत झूट दबंग होता है और इतना सरल दिखता है कि कई बार हम उसी को सच समझने की भूल करते हैं. आज भी खुदगर्ज़ ही सबसे अधिक उदारता की बात करता है, चोर ही सजा दिलवाएगा, झूठा सच का ढोल और बेईमान ईमानदारी की चर्चा करते नहीं थकेगा, जितना बड़ा व्यभिचारी होगा , उतना ही चीख चीख के नैतिकता का झंडा उठाएगा !.
हाँ 'चरित्र' सम्बन्धी मापदंड स्त्री और पुरुष के लिए भी अलग भी नहीं हो सकते!!! अगर पुरुष में भेड़िये होते हैं, तो क्या आज स्त्रियों में शूर्पनखाएँ नहीं छुपी हैं? क्या पुरुष और क्या महिला ? कल तक पुरुष अपने अपने पूर्वाग्रह और घृणा को 'चरित्रहीन' जैसे शब्द से व्यक्त करते थे, ठीक उसी तरह आज कई महिलाओं ने जिन्होंने नारी मुक्ति आन्दोलन के झंडे के तले अपनी हिंसा को छुपा रखा है, अब 'चरित्रहीन' शब्द का इस्तेमाल अपने पूर्वाग्रह और घृणा से कर रही हैं। दोहरे संस्कार वालों से हमे सावधान रहना होगा, ये बड़े सफाई से भीतर छुपी हिंसा को न्याय का नाम दे रहे है. उनके प्रभाव में तिल का ताड़ हुआ जा रहा और अनजाने ही सबकुछ बहुत तेजी से ध्वस्त हुआ जा रहा हैं.
Monday, October 17, 2011
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शब्दशः सहमत ...
ReplyDeleteइतनी गहन विवेचना एक कृष्ण जैसा व्यक्तित्व ही कर सकता है!
आपकी लेखनी ..जिस विष्ाय पर भी चलती है बेहद सटीक व सार्थक हो उठती है वह प्रस्तुति ...आभार ।
ReplyDeleteएक अच्छे चरित्र के व्यक्ति से आमतौर पर मतलब समाज के अनुसार वह है जो बंधी-बंधाई परिपाटी पर चलता हो तथा ऐसा कोई भी काम न करता हो, जो समाज द्वारा "वर्जित" की श्रेणी में आता है।
ReplyDeleteकिसी के चरित्र पर टिप्पणी करने वाला व्यक्ति वही कहता है जैसा वह खुद होता है। असल में यदि आप जानते हैं कि अच्छा चरित्र सच में क्या है तो आप सामने वाले को भी उसी स्केल पर तौलेंगे और हमारा समाज वही करता है। ये आपका नजरिया होता है, जिससे आप किसी के चरित्र को आँकते हैं.
रावण के ही जगत्प्रसिद्ध चरित्र और अव्यक्त चरित्र में फर्क है -
महर्षि वाल्मीकि ने रावण को महात्मा कहा है। सुबह के समय लंका में पूजा-अर्चना, शंख और वेद ध्वनियों से गुंजायमान वातावरण का रामायण में अलौकिक चित्रण है। रावण अतुलित ज्ञानी तथा बहु-विद्याओं का मर्मज्ञ था। एक कुशल राजनीतिज्ञ, सेनापति और वास्तुकला का मर्मज्ञ राष्ट्रनायक था।
अशोक वाटिका जैसा विराट बाग तथा नदियों पर बनवाए गए पुल प्रजा के प्रति उसकी कर्तव्यनिष्ठा के प्रमाण हैं। स्वयं हनुमानजी उसके धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र संबंधी ज्ञान का लोहा मानते थे।
संयमी रावण ने माता सीता को अंतःपुर में नहीं रखा, राम का वनवास-प्रण खंडित न हो, अतः अशोक वन में सीता को स्त्री-रक्षकों की पहरेदारी में रखा। सीता को धमकाने वाले कथित कामी रावण ने सीताजी द्वारा उपहास किए जाने के बावजूद, बलप्रयोग कदापि नहीं किया, यह उसकी सहनशीलता और संयमशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सीताहरण के पूर्व, शूर्पणखा के नाक-कान काटे जाने के प्रतिशोधरूप नीतिपालक रावण ने वनवासी राम पर आक्रमण नहीं किया, उन्हें अपनी सेना बनाने की, सहायक ढ़ूँढने की पूरी कालावधि दी। रावण से रक्षा हेतु राम को अमोघआदित्य स्तोत्र का मंत्र देने वाले ऋषि अगस्त्य का यह कथन हमारे नेत्र खोल देने वाला होगा- 'हे राम! मैं अपनी संपूर्ण तपस्या की साक्षी देकर कहता हूँ कि जैसे कोई पुत्र अपनी बूढ़ी माता की देख-रेख करता है वैसे ही रावण ने सीता का पालन किया है।'
वाणी , रहन-सहन , परिस्थिति जैसे कई आयाम हैं चरित्र के - जिसे न सुने आधार पर कहा जा सकता है , न काल्पनिक आधार पर ! किसी को कुछ कहते हुए जानें कि कहनेवाले आप पर भी ऊँगली उठा रहे हैं - तो जिस तरह आप खुद के लिए चौकते हैं, बिफरते हैं वैसे ही दूसरों के लिए भी सोचें .
हमने आपने सतयुग द्वापर युग की अपनी सोच से व्याख्या कर डाली - सोच से ही न !
बेहद गहन और सार्थक विश्लेषण किया है।
ReplyDeleteकृष्ण ने और केवल उन्होंने खोखले ज्ञान को कभी प्रोत्साहित नहीं किया. बाकी सब ने दोहरी नीति अपनाई
ReplyDeleteवाह...सच्चा और प्रेरक लेख..आभार आपका
नीरज
सुन्दर विवेचन.
ReplyDelete'चरित्र' सम्बन्धी मापदंड स्त्री और पुरुष के लिए भी अलग भी नहीं हो सकते!!!
ReplyDeleteसही कहा है आपने और जो इन्हें अलग करके देखते हैं निश्चित रूप से वह अपनी मानसिकता का परिचय देते हैं .....!
स्वयं के दोष देखना ही श्रेयस्कर।
ReplyDeleteसुन्दर विवेचन.
ReplyDeleteदिल खुश हो गया आपका लेख देखकर।
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