Friday, December 24, 2010

विसंगतियां और समय




मैं राजा भी हूँ
रंक भी
मैंने दान किया है
तो भिक्षाटन भी किया है
मैंने लक्ष्य भेद किया है
तो कई जगह मेरे हाथ बंधे भी रहे हैं
मैं पूरी धरती को नाप सकता हूँ
तो मैं एक कदम में थक भी जाता हूँ
.... इसे विसंगतियां कहो
या समय !
विसंगतियों और समय के गिरफ्त में तो
प्रभु आम इन्सान हुए
मैं तो इन्सान ही हूँ
ईश्वर के पदचिन्हों का अनुगामी !









Wednesday, December 22, 2010

सौ प्रतिशत की चाल





प्रश्नों के कटघरे से निकलने की चाह में
मैंने सौ प्रतिशत का हिसाब किया है !
इस सौ प्रतिशत ने
मेरी ज़िन्दगी को एक समझौता बना दिया !
और उसकी आँखों की हतप्रभता से .
मैं भागने लगा हूँ !
अब तक एक तरफ शक था ,
लालच थी ,
प्रतिस्पर्धा थी ...
और उससे मेरी लड़ाई !
ये कोई लहरों की ध्वनि पर
मेरा नाम ले सकता है
मेरी हथेली पर घरौंदा बना सकता है
मुझे मेरा स्वरुप दिखा सकता है
यह विश्वास तो ख़त्म हो चला था ...
....
पर युगों का पर्दा हटा
जो सत्य मेरे आगे खड़ा है
वह सौ प्रतिशत है ...
सौ प्रतिशत का हिसाब यही होता है
जो इन आँखों में है
यह सत्य जागरण करता है
मंत्रोच्चार करता है
निष्ठा का स्तम्भ बनता है
.......
मेरे समस्त तर्क उसके निकट
बेमानी होते हैं
क्योंकि वह कोई और नहीं
मेरा ही 'मैं' है
मैं उससे दूर भागता हूँ
या ऐसा कुछ करता हूँ
कि वह खुद कहे जाने की बात !
उसके मौन को मैं सुनना नहीं चाहता
मात्र सत्य लेकर मैं क्या करूँगा
संसार तो सत्य से चलता नहीं
और वह
अंगारों पर चलकर मुझसे मिलता है
मैंने देखा है
उसके पांवों में छाले नहीं
........
और मेरे ह्रदय में ज्वालामुखी है !
वह ज्वालामुखी के द्वार पर
निष्कंप खड़ा है
मेरे हर ताप को आत्मसात करने को तत्पर
वह एक उत्तर है
पर मैंने सौ प्रतिशत की बिसात पर
शतरंज के मोहरे डाल
उसे प्रश्न बनाना चाहा है
.........
क्या यह सही बाज़ी है
अपने ही मैं के साथ?

Tuesday, December 21, 2010

आत्मा - परमात्मा वार्तालाप




आत्मा)
अगर ये सच है
कि मैं तुम्हारा प्रतिरूप हूँ
तो फिर ये उद्विग्नता क्यूँ?
तुम आधार देकर
क्यूँ निराधार चिंतन देते हो
न्याय की दिशा निर्धारित तो तुम ही करते हो
फिर अन्याय के आरोप के दलदल में
मुझे क्यूँ डालते हो ?

....परमात्मा )
इतनी आसानी से तुम ज़िन्दगी को कैसे झेल सकते हो?
विरोध के स्वर के मध्य ही तो तठस्थता देखी जाती है
कबड्डी के खेल में जो कोमल पकड़ रखते हैं
वे हार जाते हैं
जीतने के लिए मन की ताकत
शरीर का प्रयोजन बनती है
अन्याय के दलदल में मैं नहीं पहुँचाता तुम्हें
तुम्हारा विरोधी द्वन्द तुम्हारे आगे प्रश्न खड़े करता है ...

आत्मा)
द्वन्द क्यूँ ना हो प्रभु ...
सब कहते हैं सब निर्धारित है
तो सही गलत तो तय है
कर्ता तुम
तो मैं कैसे उत्तरदायी ?

परमात्मा)
जब जब मंथन होता है
तुम असाधारण से साधारण हो जाते हो !
क्या तुम इस बात से अनभिज्ञ हो
कि समुद्र मंथन में एक तरफ मैं था
तो एक तरफ असुर ?
मेरी लीला तो बस इतनी थी
कि सर्प का मुख असुरों की तरफ था !
मेरा उद्देश्य अमृत था
यानि न्याय
....
ज्ञान के इस छोर तक तुम हो
फिर प्रश्न क्या ?
जब जब धर्म का नाश होता है
मैं अवतार लेता हूँ
....फिर द्वन्द क्या ?
दलदल प्रश्नों का कहीं नहीं
अपने अन्दर का भय है
और इससे उबरने का दायित्व अपना होता है
निर्वाण का मार्ग अपना होता है ....
....
कोई और प्रश्न ?
..............
आत्मा ने दृष्टि झुका ली !

Sunday, December 19, 2010

लक्ष्य साधना है...






अर्जुन आज भी
मेरे पास गांडीव रख
दुविधा में है !
मैं कर्मठ,अविचल,अविरल
सार के सन्दर्भ में हूँ

'अर्जुन इसे युद्ध का नाम मत दो
यह मात्र अन्याय का विरोध है
जो हर काल में ज़रूरी है ...'

' प्रश्न के किस महासागर में हो अर्जुन ?
द्यूत क्रीडा के समय तो तुम जीत के नशे में रहे
कुछ नहीं सोचा
और आज प्रश्नों के भंवर में अटके हुए हो ...'

'प्रश्नों के महासागर में तो जन्म लेते
मैं रहा अर्जुन ...
रिश्तों का अदभुत मायाजाल
और मैं अबोध !
देवकी की गोद से निकल
यशोदा के आँचल तले
मैं जितना भाग्यवान रहा
उतना ही कटघरे में रहा ...
किसने नहीं पूछा ,
'किसे माँ कहोगे '
अर्जुन , क्या यह प्रश्न
दोनों माओं के लिए
अनुचित न था ?'

'अन्याय के विरोध में
१४ वर्षीय मैं कृष्ण ,
मामा के समक्ष था ....
तो कहो अर्जुन ,
यह रिश्ता महत्वपूर्ण था
या मुझसे पहले मारे गए
नवजात मेरे अपने ?
....
इन अन्यायों के आधार पर ही
कंस मामा की मृत्यु तय थी
रिश्तों का कैसा व्यर्थ प्रश्न?'
'कितनी व्याकुलता लिए
कितनी आसानी से
तुमने गांडीव रख दिया
और असहाय हो गए !
अर्जुन ,
रथ से पलायन मैं भी कर सकता हूँ
अपने स्वरुप को सीमाबद्ध कर सकता हूँ
सुदर्शन चक्र हटा सकता हूँ ...
क्योंकि मेरा संबंध
इस कुरुक्षेत्र के दोनों छोर पर है
....
न्याय के लिए मैं सारथी हो सकता हूँ
तो अर्जुन
तुम्हें बस यह गांडीव उठाना है
और लक्ष्य साधना है...'


........

Friday, December 17, 2010

गुलमर्ग बनेगा



बीज अलग अलग होते हैं
बीज गुलाब के
बीज गेंहू के
बीज कैक्टस के ....

प्रभाव अलग अलग
गुलाब सौन्दर्य
गेंहू - आटे से रोटी
कैक्टस हर हाल में खड़ा
चुभता हुआ
....
सबके सब
गुलाब से उदासीन
कैक्टस उगाने लगे हैं
...वक़्त नहीं उनके पास
गुलाब की काट छांट के लिए
पानी, खाद के लिए
तो सहज हो गया है कैक्टस..
या फिर नकली फूल !

फिर भी मैं हर सुबह
एक बीज परिवर्तन के बोता हूँ
वक़्त लगेगा
पर गुलमर्ग बनेगा

Friday, December 3, 2010

का करूँ सजनी

क्या करूँ प्रिये
प्यार के लिए
इन दिनों
वक़्त ही नहीं मेरे पास...

आज कल मेरा
कर्त्तव्य - सप्ताह चल रहा है
एक के बाद एक
कर्त्तव्य पूरे करने में लगा हूँ...

मुझे सिखाया गया है -
कर्तव्य और जिम्मेवारियां
प्यार से ऊपर हैं...
परिवार - समाज
व्यक्तिगत जीवन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण ...

पर हंसी भी आती है,
जब सोचता हूँ,
क्या यही परिवार - समाज
जिसकी दुहाई देते सब थकते नहीं
किसी कमजोर वक़्त में
कभी खड़ा भी हुआ है किसी के साथ ...

इतिहास गवाह है
अब तक तो नहीं
किसी बहाने हो
इसने अपने हाथ हमेशा हाँथ छुड़ा लिए....

कहते हैं
अपनी ख़ुशी का सोचने वाला स्वार्थी होता है
और फिर
प्यार के लिए
वक़्त क्या चाहिए
प्यार तो प्यार है
कभी भी किया जा सकता,  है न ????

अपना उल्लू सीधा करने को
कुछ भी कह सकते हैं लोग

हम ही अपनी धुन
अपनी खुशफहमी में
भूल जाते हैं -
हमारे ख्वाब ही हमारी पूंजी हैं
हमारा प्यार ही हमारी जिंदगी
और यह जिंदगी ही तो बस हमारी थाती है

जाने कब जिंदगी की शाम हो जाये
और... और ....