Friday, December 24, 2010
विसंगतियां और समय
Wednesday, December 22, 2010
सौ प्रतिशत की चाल
Tuesday, December 21, 2010
आत्मा - परमात्मा वार्तालाप
Sunday, December 19, 2010
लक्ष्य साधना है...
Friday, December 17, 2010
गुलमर्ग बनेगा
Friday, December 3, 2010
का करूँ सजनी
प्यार के लिए
इन दिनों
वक़्त ही नहीं मेरे पास...
आज कल मेरा
कर्त्तव्य - सप्ताह चल रहा है
एक के बाद एक
कर्त्तव्य पूरे करने में लगा हूँ...
मुझे सिखाया गया है -
कर्तव्य और जिम्मेवारियां
प्यार से ऊपर हैं...
परिवार - समाज
व्यक्तिगत जीवन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण ...
पर हंसी भी आती है,
जब सोचता हूँ,
क्या यही परिवार - समाज
जिसकी दुहाई देते सब थकते नहीं
किसी कमजोर वक़्त में
कभी खड़ा भी हुआ है किसी के साथ ...
इतिहास गवाह है
अब तक तो नहीं
किसी बहाने हो
इसने अपने हाथ हमेशा हाँथ छुड़ा लिए....
कहते हैं
अपनी ख़ुशी का सोचने वाला स्वार्थी होता है
और फिर
प्यार के लिए
वक़्त क्या चाहिए
प्यार तो प्यार है
कभी भी किया जा सकता, है न ????
अपना उल्लू सीधा करने को
कुछ भी कह सकते हैं लोग
हम ही अपनी धुन
अपनी खुशफहमी में
भूल जाते हैं -
हमारे ख्वाब ही हमारी पूंजी हैं
हमारा प्यार ही हमारी जिंदगी
और यह जिंदगी ही तो बस हमारी थाती है
जाने कब जिंदगी की शाम हो जाये
और... और ....
Friday, October 29, 2010
कौन सा सच
कहते हो सच जानना है
कौन सा सच?
जिसे मैं दुनिया को पेश करता हूँ
या वो
जिसे मैं जीता हूँ....
व्यर्थ है
मत जानो किसी का सच
क्यूंकि सच क्रूर होता है
सच ही तो जानने चला था एथेंस का सत्यार्थी
और ऑंखें खो कर कीमत चुकाई थी .....
फिर मेरा सच
सिर्फ मेरा ही हो सकता है
मेरे सच को तुम
सच मान भी कैसे सकते हो
क्या निकल पाओगे अपनी मान्यताओं से
जिनसे तुमने अपनी पहचान बना ली है....
सच तो तुम्हारे चारोँ ओर
हर समय फैला है
तुमने ही आँखें मूँद रखी हैं
क्यूँकी अब सच कि नहीं
झूट की आदत हो गयी है....
कहो तो तुम्हारे झूट को ही
अपना सच बता दूँ
अपना झूठ मुझसे सुन कर
तुम्हारा सच जानने का भ्रम भी बना रह जायेगा ....
मत जानो किसी का सच
क्यूँकी फिर
हममे से एक ही रह जायेगा
तुम्हारे सच को अपना कह
मैं मिट जाऊं
या मेरा सच जान
तुम्हारा वजूद मिट जाये
बात तो एक ही है न ....
अपने सच के साथ ख़ुशी से जियो
जैसे सब जीते हैं
क्यूँ मिटाना अपने ही हाथों अपनी हस्ती को
संसार यूँही चलता आया है
चलता रहेगा
कौन किसी को कभी अपना सच दिखा पाया है
कौन कभी किसी का सच जान पाया है
Friday, October 22, 2010
क्यूँ?
उदार बनू ?
क्यूँ ?
किस्से ?
किस लिए ?
कब तक ?
कहाँ तक?
बनू ?
मतलब ?
हूँ नहीं क्या ?
हम समझ कर नासमझ बनते
उदारता हमारा स्वभाव था
और उनका पेशा ....
कहोगे आज वो कहाँ
और हम कहाँ,
वो लेकर भी खाली
और हम....
ठीक है
पर कीमत,
कीमत किसने चुकाई ?
हमने,
उम्र से....
पाठ तो पढ़ा,
पर सीखा नहीं कृष्ण से -
व्यक्ति, काल, परिस्थिति
समझ - देख कर ही,
निश्चय सही होता है....
कोरी परिभाषाओं से
इंसान ही भ्रमित होता जाता है....
लेना गर ठीक नहीं
तो लुटाना कैसे हो सकता है ?
उदारता अभिशाप न बन जाये
समय रहते,
सम्हल जाना ही ठीक होता है....
Saturday, October 16, 2010
संबंधों से परे
लोगों की सुनी,
पर लोग
फिर भी
कहते रहे,
कहते ही रहे ...
आखिर कब तक...
चलो अब तो हम
संबंधों से परे
अपने सम्बन्ध बना लें...
Tuesday, October 12, 2010
शिव और शक्ति
भोले शिव -
और संहार करता ?
शिव के संहार में सृजन के बीज हैं,
पक्षपात विहीन कृत्य....
क्यूंकि
कई बार कोई विकल्प ही नहीं होता,
क्यूंकि विकृति हद से गुजर के संस्कार बन जाती है....
कहते हैं जब शिव विष का पान कर रहे थे
तो शक्ति ने उसे गले में ही रोक दिया था,
हृदय में उतरने नहीं दिया,
शिव का कंठ जरुर नीला हो गया
पर संसार का भोलापन बच गया....
शिव और शक्ति -
भोलापन और प्रेम -
सृष्टि के मूल हैं....
इस महाशिवरात्रि के पर्व में
आइये
हम भी अआतं अवलोकन करें,
शिव और शक्ति को जगाएं,
क्यूंकि उनके बिना
जीवन में उत्सव कहाँ ?
Saturday, October 9, 2010
कहाँ हूँ मैं !
सब कहते हैं
आप बहुत अच्छे है
मैंने पूछा - क्यूँ -
क्योंकि आप हमेशा हमारे लिए सोचते हैं
किसी ने कहा
आप कितने प्यारे हैं --
कैसे भला
आप हमे इतना प्यार जो करते हैं
.................
और मैं टुकड़े टुकड़े होता गया !
फिर वह मिला
उसने कहा
तुमने खुद को कभी जाना है ?
उम्र बीतती गयी
आकलनों को बटोरते
कभी खुश हुआ
ख़याली पुलाव बनाते
कभी हतप्रभ हुआ
खुद को अजनबी सा देखते
अंतर्द्वंद में
सबकुछ गडमड होता गया
खुद को कोसा
'क्या क्या सोच जाते हो तुम !'
और सबको आवाज़ दी
कहीं दरवाजा बंद मिला
कहीं छोटा सा फ़ोन भी बंद मिला
पाया ----
सब व्यस्त हैं
मेरे लिए तो किसी के पास वक़्त नहीं था
....
कैसे रोता
मन की धारणा को कैसे झुठलाता
'पुरुष आधार है
शक्ति है
आंसू कमजोरी है ....'
पर सुबह देखा
मेरा तकिया गिला था
किसी का हाथ मेरे सर पे था
देखा -
मेरा मैं मेरे पास है
उसीने मुझे दुलारा
और कहा -
'थकना तो था ही
तुमने खुद को
महज एक ज़रूरत बना दिया था
तुम ज़िंदा हो
यही क्या कम है !
परिचितों की भीड़ में
तुम अपरिचित हो
क्योंकि तुमने अपना परिचय कभी दिया ही नहीं...
अब तो मेला उठने का समय है
यूँ भी
आज की चकाचौंध में मेला कौन जाता है !
जमाना बदल गया
और
परिचितों की इस रंगीन भीड़ में तुम -
आज भी किसी अपने को ढूंढ रहे हो !!!'
Monday, September 27, 2010
भ्रम
क्या कमी है
क्या उदासी है
आपसे मिलकर
आपसे बातें कर
लगता तो नहीं
कोई उदासी है
और क्यूँ लगे भला
जब आप औरों से ज्यादा ही मुस्कुरातें हैं
लोगों को उदासी समझाने के लिए
आँखों में नमी लानी होगी
पर कहाँ से लाऊं यार
उम्र के साथ
सारे बह गए
या फिर सूख गए
अब तो चाहो भी तो
बहते नहीं
बल्कि हंसी आ जाती है
जब रोने को दिल करता है
मन हंस के पूछता है
क्या अब भी कोई भ्रम बचा था
Thursday, August 26, 2010
चाहिए, बस चाहिए
क्या चाहिए इन्हें
नाम - शोहरत
धन - दौलत
मिल जाये तो?
फिर और चाहिए, और, और...
न मिले तो,
कैसे भी चाहिए...
पर इस चाह के पीछे
कौन सी चाह है,
इसे तो समझा ही नहीं
चाह के पीछे थी
तलाश ख़ुशी की
तलाश आनंद और मस्ती की
तलाश उस अद्भुत प्रेम की
पर मिला क्या?
पहुचे कहाँ?
जहाँ न सुख बचा, न आनंद और न प्रेम...
बटोरने कि होड़ ने
सारे संबंधों से दूर कर दिया
अजीब अकेलेपन से घिरे हैं सब आज
गलती हुई?
पर कहाँ ?
आज भी समझ कहाँ पा रहा
क्यूंकि अब भी दोष
दूसरों में ही दूंढ रहा
वाह रे इन्सान वाह
खुद को शैतान बना
अब शैतान को ही दोष दे रहा...
Sunday, August 15, 2010
जीवन में practical होना पड़ता है
चारोँ तरफ,
हर देश कि यही कहानी हो कर रह गयी है I
और इसका कारण है सामाजिक मूल्यों में गिरावट I
और गिरावट के कई कारणों में एक है,
हमारा रातों रात सब पा लेने का दुस्वप्न I
देश खुद से थोड़े ही महान होता है,
किसी भी देश कि महानता उसके देशवासियों से होती है I
पर आज जिस होड़ में, जिस व्याकुलता में इन्सान ने खुद को डाल लिया है,
फिर तो ऐसा होना ही था न ?
कुछ वर्ष पहले तक
हर देश में उसके हीरो थे,
जो त्याग और कर्तव्यपरायणता के प्रतीक थे I
पर आज का हीरो कौन है?
जिसने जैसे भी हो
पैसा, पद, नाम, शोहरत पा लिया है I
सब जानते हैं उसने कैसे अर्जित किया है
पर कहता कोई नहीं
या कहें कहना नहीं चाहता
क्यूंकि कहीं न कहीं उसके दिल में भी
ऐन प्रकरेण सब पा लेने कि चाह सुलग रही है
आज बिरले ही कोई ऐसा दिखता है जो
मूल्यों को जीता है I
सब का नारा एक ही है
क्या करें
जीवन में practical होना पड़ता है I
On Sun, Aug 15, 2010 at 9:26 AM, rashmi prabha
http://wwww.newobserverpost.tk/
Sunday, August 8, 2010
एहसास ...
इतना करने की क्या जरुरत थी,
आप भी न अंकल,
अच्छा तो नहीं न लगता माँ'.
मैं चुप,
क्या कहूँ,
की तुम्हारे मासूम चेहरों में मुझे
अपना बचपन दिखता है,
तुम्हारे प्यारे,
'अंकल अब जल्दी जल्दी आयेंगे न'
मुझे रात भर सोने नहीं देते.
ऐसे ही तो थे हम
नादान
नासमझ
सब अपने हैं
मान कर चलनेवाले
बिलकुल वैसे ही तो हैं ये सारे.
मेरा बस चले तो सारी दुनिया खरीद दूँ ,
मेरा बस चले तो पहरा लगा दूँ
जिससे कोई गरेरिया कभी फांस न पाए.
मांगता हूँ थोड़ा भ्रम इनके लिए
मांगता हूँ इनका विश्वास कभी न छूटे.
क्यूंकि
सचाई से अक्सर भ्रम टूटते हैं
रिश्तों में खींचातानी बढ़ते हैं
मेरा तेरा, ऐसा वैसा.
फिर रिश्तों में
रह ही क्या जाता है !
रह जाता है बस
एक अकेलापन
एक अंधी गली
और रौशनी की उम्मीद में ही जीवन निकल जाता है...
पूछते हो क्या पाया इनसे,
इनसे पाया मैंने,
अपना वो विश्वास फिर से
अपना वो भ्रम फिर से
अपनी वो बेखोफ हंसी फिर से
इनमें देखता हूँ वो सात रंग फिर से
जो कभी हमारे भी सपने थे.
आज,
इनसे मिलकर,
अपने जिन्दा
होने का एहसास
एक बार फिर हुआ है.