तुम खेलने की बात करते हो !
थक गया मैं पूरी ज़िन्दगी शतरंज खेलते ...
मेरे सारे सैनिक खोटे निकले
अकेला मैं
अपनी बाद्शाहियत के नाम पर
अपने राज्य की रक्षा में
चलता रहा तयशुदा चालें ...
किसने शह मात देने का प्रयोजन नहीं किया !
सबने यही चाहा
हो जाऊँ मैं अपाहिज अपने विचारों से
बन जाऊँ कठपुतली
...
भय इतना प्रबल हो उठा
कि सही बात भी मुझे सही नहीं लगती
अच्छी बात भी मुझे सशंकित कर जाती है !
मैंने तो भरोसा ही किया था हर रास्ते पर
पर मैं ...
आश्चर्य ! टुकड़े टुकड़े में आहत मैं मौन हूँ
और मेरे मौन की चिंगारी से पूरी सेना दहक रही है
मेरे ही शिविर में
मेरे ही विरुद्ध
वे शस्त्र इकट्ठा कर रहे हैं
राज्यकोष मेरा
खुद्दारी उनकी .... इसीलिए न
कि मैं मौन हूँ !
....
इस प्रयोजन में भी मैं मौन हूँ
सच पूछो तो असली खुद्दारी यही है ...